कुचीपुडी आंध्र प्रदेश के राज्य के सबसे प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य

कुचीपुडी सबसे प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य

Jan 1, 2023 - 18:01
Jan 1, 2023 - 22:09
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कुचीपुडी आंध्र प्रदेश के राज्य के सबसे प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य
कुचीपुडी सबसे प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य

जयपा सेनानी (जयपा नायडू) पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने आंध्र प्रदेश में प्रचलित नृत्यों के बारे में लिखा था। देसी और मागी दोनों नृत्यों को उनके संस्कृत ग्रंथ 'नृत्य रत्नवली' में शामिल किया गया है। इसमें आठ अध्याय हैं। पर्णानी, प्रेनखाना, सुधा नर्ताना, कारकरी, रसका, दंडा रसका, शिव प्रिया, कंडुका नर्तना, भंडिका नृत्यम, कराना नृत्यम, चिन्दु, गोंडली और कोलाटम जैसे लोक नृत्य रूपों का वर्णन किया गया है। पहले अध्याय में लेखक मार्ग और देसी, तंदव और लास्य, नाट्य और नृत्य के बीच मतभेदों के बारे में चर्चा करते हैं। दूसरे और तीसरे अध्यायों में वह अंगी-खाभिनया, कैरीस, स्थानक और मंडलस से संबंधित हैं। चौथे अध्याय कर्ण में, अंगहर और रिकका वर्णित हैं। निम्नलिखित अध्यायों में उन्होंने स्थानीय नृत्य रूपों अर्थात देसी नृत्य का वर्णन किया। आखिरी अध्याय में वह कला और नृत्य के अभ्यास से संबंधित है।


आंध्र में शास्त्रीय नृत्य पुरुषों और महिलाओं दोनों द्वारा किया जा सकता है; हालांकि महिलाएं इसे और अधिक बार सीखती हैं। कुचीपुडी आंध्र प्रदेश के राज्य के सबसे प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य रूप हैं। राज्यों के इतिहास के माध्यम से मौजूद विभिन्न नृत्य रूपों में चेंचु भगतम, कुचीपुडी, भामकालपम, बुरकाथा, वीरनट्यम, बुट्टा बोमालू, दप्पू, तपेता गुल्लू, ढिम्सा और कोल्ट्टम हैं।

संगीत
राज्य में एक समृद्ध संगीत विरासत है। कार्नाटिक संगीत की कई किंवदंतियों जिनमें कार्नाटिक संगीत (थुआगराज और सियामा शास्त्री) के ट्रिनिटी के बीच दो तेलुगू वंश थे। अन्य संगीतकारों में अन्नामचार्य , क्षत्रिय , और भद्रचल रामदासु शामिल हैं।
राज्य के ग्रामीण इलाकों में लोक गीत भी लोकप्रिय हैं।

प्रदर्शन एवं मंचन

कुचिपुड़ी नृत्य पर भारत सरकार द्वारा जारी डाक टिकट
नृत्य का प्रदर्शन एक विशेष परंपरागत विधि से होता है। मंच पर परंपरागत पूजन के पश्चात् प्रत्येक कलाकार मंच पर प्रवेश करता है और एक विशेष लयबद्ध रचना धारवु के द्वारा अपना पात्र-परिचय देता है। पात्रों के परिचय और नाटक के भाव तथा परिपेक्ष निर्धारित हो जाने के बाद मुख्य नाट्य आरम्भ होता है। नृत्य के साथ कर्नाटक संगीत में निबद्ध गीत मृदंगम्, वायलिन, बाँसुरी और तम्बूरा इत्यादि वाद्ययंत्रों के साथ नृत्य में सहयोगी भूमिका निभाता है और कथानक को भी आगे बढ़ाने में सहायक होता है। नर्तकों द्वारा पहने जाने वाले आभूषण परंपरागत होते हैं जिन्हें एक विशेष प्रकार की हलकी लकड़ी बूरुगु से निर्मित किये जाने की परंपरा लगभग सत्रहवीं सदी से चली आ रही है।

शैली
भरत मुनि, जिन्होंने नाट्य शास्त्र की रचना की, इस प्रकार के नृत्य के कई पहलुओं की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। बाद में कोई १३वीं सदी के अंतर्गत सिद्धेन्द्र योगी ने इसे एक अलग विशिष्ट शैली का रूप प्रदान किया। माना जाता है कि वे नाट्यशास्त्र में पारंगत थे और कुछ विशेष नाट्यशास्त्रीय तत्वों को चुन कर उन्हें इस नृत्य के रूप में समायोजित किया। उन्होंने पारिजातहरणम नामक नाट्यावली की रचना की।[3]

कुचिपुड़ी नर्तक चपल और द्रुत गति से युक्त, एक विशेष वर्तुलता लिये क्रम में भंगिमाओं का अनुक्रम प्रस्तुत करते हैं और इस नृत्य में पद-संचालन में उड़ान की प्रचुर मात्रा होती है जिसके कारण इसके प्रदर्शन में एक विशिष्ट गरिमा और लयात्मकता का सन्निवेश होता है। कर्नाटक संगीत के साथ प्रस्तुत किया जाने वाला यह नृत्य कई दृष्टियों से भरतनाट्यम के साथ समानतायें रखता है। एकल प्रसूति में कुचिपुड़ी में जातिस्वरम् और तिल्लाना का सन्निवेश होता है जबकि इसके नृत्यम् प्रारूप में कई संगीतबद्ध रचनाओं द्वारा भक्त के भगवान में लीन हो जाने की आभीप्सा का प्रदर्शन होता है। इसके एक विशेष प्रारूप तरंगम् में नर्तकी थाली, जिसमें दो दीपक जल रहे होते हैं, के किनारों पर नृत्य करती है और साथ ही हाथों में एक जलपात्र किन्दी को भी संतुलित रखती है।

नृत्य की वर्तमान शैली कुछ मानक ग्रंथों पर आधारित है। इनमें सबसे प्रमुख है - नंदिकेश्वर रचित "अभिनय दर्पण" और "भरतार्णव"।

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