विल्लुपुरम तमिलनाडु के जिंजी किला का इतिहास तथा महत्वपूर्ण जानकारी
जिंजी फोर्ट का संक्षिप्त विवरण
जिंजी किला या सेंजी दुर्ग दक्षिण भारतीय राज्य तमिलनाडु में स्थित एक ऐतिहासिक किला है। यह किला विल्लुपुरम जिले में पुद्दुचेरी के समीप ही स्थित है। इस किले की बनाबट को देखकर छत्रपति शिवाजी ने इस किले को देश का सबसे 'अभेद्य दुर्ग' कहा था।
यह अभेद्य किला वर्षो से लगातार राजवंशों के अनेक युध्दों को सहन करते हुए और इस्लामी सल्तनत से लेकर शक्तिशाली फ्रांसीसी और ब्रिटिश साम्राज्य तक का सामना करता रहा है।
ब्रिटिशों द्वारा इस किले को 'पूरब का ट्रॉय' नाम दिया गया था। दक्षिण भारत में स्थित यह किला देश के सबसे सुन्दर किलों में से एक है, जिसे देखने के लिए हजारों की संख्या में पर्यटक यहाँ आते है।
जिंजी फोर्ट का इतिहास
जिंजी के पिछले 200 वर्षो पुराने इतिहास का मुख्य स्रोत मैकेंज़ी पांडुलिपियाँ और कर्नाटक के राजाओं का पूरा इतिहास है। प्रसिद्ध इतिहासकार एम जी एस नारायण के मुताबिक मेलसररी नामक एक छोटे से गांव को "ओल्ड जिंजी" कहा जाता था जो वर्तमान जिंजी से 4.8 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। ओल्ड जिंजी में लगभग 1200 ई. के किलेबंदी के अवशेष आज भी मौजूद है।
जिंजी के किले का सबसे पहला उल्लेख विक्रमा चोल (1120-63) के शिलालेख में पाया गया है, वह खुद को जिंजी किले और सेंजियार का भगवान कहता था। जिंजी दक्षिण भारत के विभिन्न शासक और राजवंशों के द्वारा शासित किया जा चुका है। इस किले को मूल रूप से 9वीं शताब्दी ई. में चोल राजवंश द्वारा निर्मित किया गया था जिसे, 13वीं शताब्दी के दौरान विजयनगर साम्राज्य के शासको द्वारा संशोधित किया गया था जब उन्होंने चोलों को पराजित किया था।
15वीं से 16वीं शताब्दी के दौरान विजयनगर साम्राज्य के जिंजी नायक स्वतंत्र राजा बनने के दौरान किले को पुन बनवाया था। यह किला किसी भी हमलावर सेनाओं को रोकने के लिए एक रणनीतिक जगह पर बनाया गया था, जिसे बाद में शिवाजी के नेतृत्व में मराठों द्वारा बीजापुर सुल्तानों द्वारा छीन लिया गया था, जो कुछ महीनों के लिए मराठा साम्राज्य का केंद्र रहा था। इस किले पर बाद में मुगलों का शासन चला और फ्रांसिसियो के आगमन क बाद यह किले उनके नियंत्रण में हो गया था।
जिंजी फोर्ट के रोचक तथ्य
यह किला तमिलनाडु के विल्लुपुरम जिले में स्थित है। यह चेन्नई से लगभग 157 कि.मी. और पुडुचेरी से 72 कि.मी. की दुरी पर स्थित है।
यह किला पहली बार लगभग 9वीं शताब्दी ई. में चोल राजवंशो द्वारा बनवाया गया था।
यह किला 3 पहाड़ियों के परिसर के मध्य में स्थित है, जिन्हें कृष्णगिरी, राजगिरी और चंद्ररेन्दुर्ग की पहाडियों के नाम से जाना जाता है।
लगभग 11 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैले इस किले की दीवारों की लंबाई लगभग 13 कि.मी. हैं।
इस किले को लगभग 240 मीटर की ऊंचाई पर बनाया गया था, जोकि 80 फीट (24 मीटर) चौड़ा एक घास से संरक्षित क्षेत्र था।
वर्ष 1677 ई. में शिवाजी के नेतृत्व में मराठों द्वारा इस किले को किसी भी हमलावर सेना से बचाने के लिए पुननिर्मित किया गया था।
वर्ष 1691 ई. में इसे मुगल जनरल जूल फिकर खान, असद खान और काम बक्ष द्वारा चारो ओर से घेर लिया गया था परंतु मराठा साम्राज्य के प्रमुख क्षत्रिय शांतिजी घोरपड़े ने इसका बचाव कर लिया था।
इस किले को छत्रपति राजाराम के बचने से पहले हीं वर्ष 1698 में मुगलों द्वारा अपने कब्जे में कर लिया गया था।
मुगलों ने इस किले को बाद में कर्नाटक के नवाबों को सौंप दिया था, जिसे बाद में नवाबों ने 1750 ई. में फ्रांसीसियो को दे दिया था, जिस पर फ्रांसीसियो ने कुछ समय के लिए ही शासन किया था।
वर्ष 1761 ई. में ब्रिटिशों ने हैदर अली पराजय कर इस किले पर अपना नियंत्रण स्थापित कर दिया था, जिसके कुछ वर्षो बाद 18वीं शताब्दी में यह किला राजा देसिंघू के नियंत्रण में आ गया था।
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